हिन्दी में विदेशी शब्दों के प्रयोग की क्या सीमा है?

हिन्दी में विदेशी शब्दों के प्रयोग की क्या सीमा है , कितना प्रयोग सही या गलत है?

किसी भाषा में दूसरी भाषाओं से शब्दो का आना एक सहज प्रक्रिया है। लेकिन भारतीय भाषाओं में ये शब्द कुछ ज्यादा ही तेजी से आते रहें है, इतनी तेजी भाषा प्रेमियों को सहज नहीं प्रतीत नहीं होती तो वे विपरीत दिशा में बल लगाते हैं, और हर शब्द का ही भारतीय मूल ढूँढ़ने लगते हैं। वहीं पर दूसरा तर्क होता है कि परिवर्तन के बिना विकास नहीं इसलिए हर नया शब्द निर्विरोध अपना लिए जाए।

हम कैसे पता कर सकते हैं कि किन विदेशी शब्दों का प्रयोग करना सही है और किन का नहीं है?

दूसरी भाषा से शामिल हुए शब्दों का भी एक जीवन चक्र होता है> जब वे नए आते है तो सीमित प्रयोग होगा, नई भाषा के रंग रूप और व्याकरण में वे रचते बसते नहीं है। कुछ शब्दों को भाषा त्याग देती है और कुछ को अपना लेती है। कौन सा शब्द अपनाया जाएगा और कौन सा नहीं ये पूरा समाज बिना किसी मन्त्रणा और विचार से ही तय कर लेता है। प्रचलन या चलन ऐसी चीज है जिसका श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं जाता। कोई एक व्यक्ति नए शब्दों का प्रयोग रोक नहीं सकता, बस अपनी भाषा के शब्दों का चुनाव कर सकता है।

जिन शब्दों को अपनाया जा चुका होता है उनका प्रयोग भाषा के अन्य शब्दों की तरह ही होता है। उनके अलग अलग रूप नई भाषा के अनुसार बदलते हैं।

कुछ शब्द देखते हैं जो भाषा में नए शामिल हुए हैं, जैसे कस्टमर (customer)। “मैं कस्टमर का इन्जार कर रहा हूँ” ये एक प्रयोग हुआ, इसमें कोई अटपटापन नहीं है। अब इसको थोड़ा बदल कर प्रयोग करते हैं “मैं चार कस्टमरों का इन्तजार कर रहा हूँ” यहाँ पर कस्टमरों शब्द अटपटा लग रहा है। इसका अँग्रेजी रूप ही सही लगेगा “मैं चार कस्टमर्स का इन्तजार कर रहा हूँ” , हिन्दी शब्दों की तरह इसका प्रयोग नहीं हो पा रहा है। ‘कस्टमरों’ के बजाए ‘कस्टमर्स’ का प्रयोग इस बात का प्रमाण है कि बोलने वाले के मन में इस शब्द के विदेशी होने का अहसास है।

ये पहचान है इसक बात की कि भाषा में इसका प्रयोग तो हो रहा है पर बोलचाल में शब्द को पूरी तरह अपनाया नहीं गया है। ये शब्द अभी अपनाए जाने के पहले चरण में ही है। अटपटेपन का भाव आप केवल अपने ही नहीं समाज में आम बोलचाल के आधार पर भी देख सकते है।

एक अन्य अँग्रेजी शब्द है ‘बस’ जो एक वाहन के लिए प्रयोग में आता है। ये शब्द हिन्दी भाषा पूरी तरह अपना चुकी है। “यहाँ पर कितनी बसें रुकती हैं”, “दो सौ लोगों के लिए चार बसों की जरूरत है”। ये वाक्य सहज प्रतीत होतें है और आम बोलचाल में इनका खूब प्रयोग किया जाता है । यहाँ बसें/बसों की जगह अँग्रेजी बहुवचन बसेज (buses) नहीं कहना पड़ता। बस शब्द का बसें/बसों जैसे रूपों में प्रयोग हो पाना इस बात का प्रमाण है कि इस शब्द को भाषा ने अपना लिया है। ये कहा जा सकता है कि बोलने वालों के मन में इसके विदेशी होने की शंका नहीं रही। यदि पौराणिक कहानी लिखने जैसा कोई विषय नहीं है तो ऐसे शब्दों का प्रयोग हिन्दी मूल के शब्द की तरह ही आराम से हो सकता है।

कुछ फ़ारसी मूल के शब्दों को देख ले, जैसे सवाल, जबाब, खातून, हजरत। खातून और हजरत शब्द का यदि बहुवचन प्रयोग करना है फ़ारसी मूल का ही करना पड़ेगा जैसे “सभी ख्वातीन और हज़रात शान्त रहें”। हिन्दी की तरह का प्रयोग “सभी ख़ातूनें और हजरत शान्त रहें” आज भी अटपटा लगता है। पुराने होने के बावजूद भाषा ने इन शब्दों को नहीं अपनाया। फ़ारसीमय हिन्दी के प्रयोग की आवश्यकता हो तो ही इनका प्रयोग होता है।

जब सवाल, जबाब शब्द नए प्रयोग में आए थे तब इनके बहुवचन का ऐसा प्रयोग था, “आपके सवालात के जबाबात मेरे पास नहीं हैं”। लेकिन आज इनका प्रयोग हिन्दी के अन्य शब्दों की तरह भी किया जाए तो अटपटा नहीं लगता , “आपके सवालों के जबाब मेरे पास नहीं हैं”, जब ऐसे प्रयोग आम बोलचाल में होने लगें तो मान सकते हैं शब्द भाषा में रम चुका है।

भाषा शब्द अपनाती भी है और छोड़ती भी है , मुख़्तसर और तरद्दुद जैसे फ़ारसी शब्द जो एक समय खूब चलन में थे, आज प्रयोग से बाहर हैं। समय बदलता है तो भाषा भी बदलती है। आज फ़ारसी का जमाना नहीं रहा तो जो फ़ारसी शब्द भाषा में ठीक से रम नहीं पाए, चलन से बाहर हो गए। जो रम गए वो आज भी चलन में हैं।

तो ऐसे छोटे से प्रयोग हमें ये जानने में मदद कर सकते हैं कि किस विदेशी शब्द का प्रयोग हमारे स्वाद और विषय के अनुसार कितना उचित है और एक सम्यक दृष्टिकोण से शब्दों का चुनाव हो सकता है।

[ मौलिक लेख, सर्वाधिकार सुरक्षित ]

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