हिन्दी दिवस , अंग्रेजी का पतन और भविष्य
हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ ।
ये लेख कोरा जनजागृति अभियान नहीं है , एक तार्किक विश्लेषण है। इसमें भाषण के द्वारा समाज को बदलने की अपेक्षा नहीं है लेकिन इससे आपका व्यक्तिगत लाभ अवश्य जुड़ा है। इसमें आप जानेगे कि अंग्रेजी और आय का रिश्ता कितना गहरा है , अंग्रेजी का भविष्य क्या है, अंग्रेजी पर आपको कितना व्यय करना चाहिए , और अंग्रेजी का Bubble कब फूटेगा।
इस विश्लेषण को पढ़ें और आगे बढ़ाएँ ।
मातृभाषा के प्रयोग का विषय इतना हमारी भाषा के पीछे रहने का नहीं है जितना अंग्रेजी के कारण समाज को हो रही क्षति का है। इस क्षति को समझे , भले ही समाधान न निकले लेकिन स्थिति तो ठीक से समझ में आए।
लेख के अलग अलग भाग है और हर भाग एक अलग महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करता है।
१ - अंग्रेजी विज्ञान , शोध , और व्यापार की भाषा क्यों नहीं है?
भारत में सत्तर वर्षों से अंग्रेजी में ही उच्च तकनीकी शिक्षा हो रही है , अभी तक एक भी विद्यार्थी उच्च तकनीकी शिक्षा किसी अन्य भाषा में प्राप्त नहीं कर पाया है। भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या इजराइल की जनसँख्या से अधिक है जो मातृभाषा में काम करते हैं। और भारत में अंग्रेजी बोलने वालों के पास संसाधनों की इतनी कमी भी नहीं रही है यहाँ पर गरीबी की बात हो।
भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या चीन , जापान , इजराइल , रूस से अधिक है। ये संख्या कई गैर-अंग्रेजी और विकसित देशों को कुल जनसँख्या से अधिक है। क्या भारत शोध में इनके मुकाबले आ पाया है ?
युगांडा , कैमरून , और नाइजीरिया जैसे देशों में तो पचास प्रतिशत से अधिक लोग अंग्रेजी बोलते हैं (यहाँ पर अंग्रेजी मातृभाषा नहीं है ), लेकिन ये देश भी शोध क्यों नहीं कर पाए ? ये देशो तो बहुत गरीब हैं। अंग्रेजी केवल वहीँ पर काम कर रही हैं जहाँ पर अंग्रेजी मातृभाषा है।
अंग्रेजी से शोध होता तो भारत तो शोध में अग्रणी होता। लेकिन कहाँ है वो शोध ? क्या चीन अंग्रेजी बोलने वाले देशों से व्यापार नहीं करता , क्या रूस और जापान व्यापार नहीं करते है। अंग्रेजी ने इस देश को अंग्रेजी बोलने वाले पत्रकार दिए जो अंग्रेजी शोध की भाषा बताते हैं पर खुद शोध नहीं करते , अंग्रेजी ने इस देश को अंग्रेजी बोलने वाले नौकरशाह दिए अंग्रेजी शोध की भाषा बताते हैं पर खुद शोध नहीं करते, अंग्रेजी ने इस देश को अंग्रेजी बोलने वाले राजनेता भी दिए उनमें भी कुछ अंग्रेजी शोध की भाषा बताते हैं पर खुद शोध नहीं करते, अंग्रेजी ने इस देश को अंग्रेजी बोलने वाले शिक्षक भी दिए जो अंग्रेजी शोध की भाषा बताते हैं पर खुद शोध नहीं करते। वो शोध और विज्ञान कहाँ है जो छुपकर मातृभाषा में पढ़ने वाले देशों से हमें पीछे रखे हुए हैं।
क्यों हम बेकार में सच्चाई से आँखें मूँदते रहना चाहते हैं। आँकड़े आँखों के सामने हैं इस विषय पर चर्चा भी नहीं होनी चाहिए की अंग्रेजी शोध की भाषा है या नहीं । शोध की केवल एक ही भाषा होती है वो है मातृभाषा।
उद्योग में जाकर सर्वेक्षण करें। लोगों से ये दो प्रश्न पूछें कि
- आप अपनी अंग्रेजी को किस स्तर का समझते हैं ?
- क्या आप भविष्य में तकनीकी नेतृत्व (technical leadership) करना चाहते हैं या मैनेजमेंट (people management) में जाना चाहते हैं।
मैंने जो सीमित सर्वेक्षण किये उनका ये परिणाम है। भारतीय उच्च तकनीकी उद्योग में काम कर रहे जो लोग अपनी अंग्रेजी को अपनी मुख्य योग्यता समझते हैं वो अधिक समय तक तकनीकी काम करना ही नहीं चाहते। अब ये शोध कहाँ से करेंगे जब ये उस काम में हैं ही नहीं । तकनीकी काम कर रहे लोग अंग्रेजी तो जानते हैं लेकिन उसे अपनी मुख्य योग्यता नहीं मानते। यहाँ ये भी स्पष्ट कर दूँ कि उच्च तकनीकी क्षेत्रों में तकनीकी लोगों की औसत आय अधिक होती है , इसके भी आँकड़े उपलब्ध हैं, तो यहाँ कारण आय भी नहीं है। यहाँ कारण आराम है , थोड़ी अधिक अंग्रेजी बोलकर भारत में आराम से कट ही रही है तो दिमाग लगाने का कष्ट क्या करना। यदि आप शोध पर शोध करेंगे तो पाएँगे कि अंग्रेजी तो शोध के विरोध में है और भारत के शोध में पीछे छूटने का मूल कारण है।
अब शोध का मुख्य घटक क्या है ?
“It’s not that I’m so smart, it’s just that I stay with problems longer.” - Einstein
मैं कोई ज्यादा बुद्धिमान नहीं हूँ बस एक समस्या पर ज्यादा समय तक काम करता हूँ - आइन्स्टीन
शोध का मुख्य घटक एक ही विषय पर लम्बा समय देना। अंग्रेजी इसमें कैसे बाधा है ?
क्योंकि अपने जीवन के एक लम्बे भाग जो अंग्रेजी पर काम करने में लगा है उसके पास अन्य विषयों के लिए समय की तो कमी होगी ही। ये व्यक्ति केवल एक ही विषय पर शोध कर सकता है वो है अंग्रेजी। विद्यार्थी जीवन में भी जब लोग स्नातक की पढाई कर रहे होते हैं तो अंग्रेजी में ही लगे होते हैं। किसी समस्या पर लम्बा समय दे ही नहीं पाते , उनमें ये विश्वास कैसे जमेगा कि ज्यादा समय देने से समस्या हल भी हो सकती है।
२- क्या अंग्रेजी और आय में रिश्ता है? यदि है तो कितना है ?
यदि आप पूरे समाज का सर्वेक्षण करोगे तो पाओगे कि अंग्रेजी बोलने वालों की आय अधिक है। ये तर्क ही अंग्रेजी और आय में रिश्ता दिखाने के लिए प्रयोग में आता है। लेकिन यहाँ पर छोटी सी गलती हो गई, जो अंग्रेजी बोल रहें हैं उनमें अधिकांश की पिछली पीढ़ी की आय भी शेष समाज से अधिक ही थी। तो यहाँ तो आय के कारण अंग्रेजी आई हुई प्रतीत होती हैं अंग्रेजी से आय नहीं।
इस रिश्ते की दिशा को विपरीत प्रस्तुत किया जाता है। आरंभ में अधिक आय के कारण एक वर्ग ने अंग्रेजी सीख ली थी। अब उसी वर्ग के एकाधिकार के कारण अंग्रेजी और आय में रिश्ता बना हुआ है। आय के कारण अंग्रेजी आती है और फिर उस माहौल में अंग्रेजी का लाभ केवल इसलिए होता रहा है कि पहले अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या भारत में कम थी और उद्योग में उच्च तकनीकों पर काम नहीं होता था। अब अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या बढ़ जाने से इस बात में तो कमी आई है कि अंग्रेजी अपने आप में एक योग्यता बन जाए।
अब यदि हम केवल उस समूह को देखें जो अंग्रेजी बोल रहा है और उसी के अंदर अंग्रेजी की योग्यता का प्रभाव देखें। इस पर भी यदि भारत में सर्वेक्षण करेंगे तो पाएँगे कि रिश्ता उलटा है। अंग्रेजी पर अधिक ध्यान देने वालों की आय कुछ कम है और उन लोगों की आय अधिक है जिन्होंने अन्य योग्यताओं पर भी ध्यान दिया है जिसमें तकनीकी कौशल तर्क शक्ति इत्यादि हैं। यदि आपको अधिक कष्ट नहीं लेना तो आप कालिजों में जाकर पहला ही चयन देख लें कि सर्वाधिक पैकेज वाला और सबसे अच्छी अंग्रेजी वाला व्यक्ति एक ही व्यक्ति हो ऐसा नहीं होता है। लेकिन इसको अच्छे देखने के तरीक कुछ वर्षों बाद होने वाला सर्वेक्षण है। अंततः उद्योग काम के आधार पर ही चलता है उसमें मानव व्यवहार , मानव के सोच इन सबका अपना प्रभाव और योगदान है , लेकिन लम्बे सफर में ये नगण्य हो जाते हैं। यहाँ पर अच्छी अंग्रेजी और योग्यता के मेल का भ्रम खुद उस व्यक्ति हो ही क्षति पहुँचा रहा है जिसे ये भ्रम है।
अर्थात यदि आपको ठीक ठाक अंग्रेजी आती है तो अब उसमें नहाकर आपको और अधिक लाभ नहीं होने वाला।
३- हिन्दी माध्यम को छोड़कर अंग्रेजी माध्यम चुनने का कारण क्या केवल गुलामी की मानसिकता है या कुछ और ?
1980 के दशक तक भारत में हिन्दी माध्यम में कक्षा १२ तक खूब शिक्षा हो रही थी, तब भी अंग्रेजी का प्रभुत्व था पर इतना नहीं था। तब गुलामी की मानसिकता नहीं थी क्या ? फिर अब क्या होगा गया कि अब किसी शहर में कोई प्राइवेट स्कूल हिन्दी माध्यम है ही नहीं। केवल सरकारी स्कूल हिन्दी माध्यम है।
यहाँ पर एक बहुत ध्यान देने वाला प्रश्न है, कि लोग शिक्षा के आरम्भ से ही अंग्रेजी माध्यम क्यों ले रहें है जबकि अंग्रेजी भाषा तो विषय के तौर पर सीखी जा सकती थी ?और छोटे नगरों के लोग ये तो जानते हैं कि वहाँ के अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में बातचीत का माध्यम मातृभाषा ही होता है , बस विषय अंग्रेजी में होते हैं अर्थात लिखना और पढ़ना अंग्रेजी में बोलना नहीं । तो ये तो स्पष्ट है कि ये लोग केवल अंग्रेजी बोलने के कारण अंग्रेजी माध्यम स्कूल में नहीं जा रहे।
बहुत सी समस्याएँ होती हैं जिनका मूल कारण दबा छुपा होता है और पता नहीं चलता लेकिन इस समस्या का मूल कारण जानना तो बहुत सरल है। किसी अंग्रेजी माध्यम स्कूल में जाइए वहाँ के बच्चों और उनके माता पिता से बात करिये की क्यों वे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहें हैं। ये गुलामी की मानसिकता नहीं है ये धरातल पर भारतीय भाषाओँ की स्थिति हैं।
इसका मूल कारण तो रोजगार है लेकिन अंग्रेजी रोजगार से उस तरह से नहीं जुडी है जिस तरह से इसको देखा जाता है। अंग्रेजी भाषा रोजगार दे रही होती तो भी अंग्रेजी माध्यम में आरम्भ से ही पढ़ने की आवश्यकता ना होगी। यहाँ पेंच उससे अधिक है जितना ऊपर से दिखाई देता है।
रोजगार मिलता है उच्च शिक्षा से। और उच्च शिक्षा मिलती है प्रवेश परीक्षाओं से ( या यदि सीधे भी रोजगार है तो उसकी भी एक परीक्षा है। )
आरम्भ में प्रवेश परीक्षाएँ अंग्रेजी में हो रही थी । जब मातृभाषाओं में होने लगी तो कोई मातृभाषा से पढ़ा व्यक्ति उपलब्ध ही नहीं था कि प्रश्न पत्र का अनुवाद कर दे । जो अंग्रेजी में पढ़कर आए उनको ये सीखने में समय कर श्रम लगाना था। इतना कौन करे . शब्द संग्रह उठाकर प्रश्न पत्र का अनुवाद कर दो। अब ये अनुवाद इतने ऊट पटांग हुए कि एक तीसरी भाषा बन गई जिस भाषा को मातृभाषा में पढ़ रहे छात्रों ने ना तो सुना था न देखा था। उनको लगा कि इससे अच्छा तो था कि हम थोड़ा समय अंग्रेजी तो देते तो प्रश्न तो सही मिल जाते। यह भाव धीरे धीरे पूरे समाज में फैला गया और अब आरम्भ से ही लोग अंग्रेजी माध्यम में जाते हैं और ये अंग्रेजी भाषा सीखने नहीं बल्कि अन्य विषयों के कारण जाते हैं जिनमे उन्हें आगे प्रवेश परीक्षा देनी है । जो पहले से अंगेजी में ही थे उनको शेष स्थान पर क्या चल रहा है कोई खबर नहीं।
अब हम देख सकते हैं कि लोग अंग्रेजी बोलने के लिए अंग्रेजी माध्यम में नहीं गए , बल्कि अन्य विषयों के लिए अंग्रेजी माध्यम में गए हैं ताकि बाद में उन्हें गलत प्रश्न पत्रों का सामना ना करना पड़े। अब ये समस्या इतनी पुरानी और गहरी हो गई है कि ये बाते लोगों की स्मृति से जा चुकी हैं और अब तो माहौल को देखकर ही लोग जाते हैं। लेकिन मूल कारण तो अभी भी बने ही हुए हैं तो लोगों को दोष नहीं दे सकते।
४- अंग्रेजी नया जातिवाद है
यदि समाज के एक तबके के अलग होने के नुकसान हैं तो अंग्रेजी से भी वही नुकसान हैं जो जातिवाद से थे। अंग्रेजी में जातिवाद के सभी गुण हैं। संसाधनों का केवल एक तबके तक सीमित होना और अन्य तबके को धीरे धीरे तुच्छ समझने लगाना। जातिवाद के सभी दोष अंग्रेजीमय माहौल में है।
५- अब अंग्रेजी की दिशा नीचे की ओर
अंग्रेजीमय माहौल का लाभ जिस वर्ग को मिला उसने उससे कोई तकनीकी या वैज्ञानिक शोध नहीं किया बल्कि इस विचार का केवल आनन्द लिया है कि मैं सुशिक्षित हूँ। उसने अपना समय समाज को यही समझाने में लगा दिया कि अंग्रेजी से विकास होगा लेकिन उसने कोई शोध करके दिखाया नहीं कि क्यों ये विज्ञान और शोध की भाषा है। उसने बस अंग्रेजी में बात ही की है । इस माहौल से भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या काफी बढ़ गई है लेकिन और कोई योग्यता उस मात्रा में नहीं बढ़ी है। लेकिन लाभ तो माँग (Demand) और आपूर्ति (Supply) के नियमों पर चलता है।
इस भीड़ से इतना तो हुआ कि अब अंग्रेजी अपने आप में विशेष योग्यता नहीं रह गई। और रोजगार में अंग्रेजी से होने वाले लाभ काफी घट चुकें हैं। अब इसमें मध्यम वर्ग घुस चुका है। उसने अंग्रेजी वर्ग के एकछत्र लाभ को छीन लिया है। अब अंग्रेजी से जुडी नौकरियाँ नई नई अंग्रेजी सीखा मध्यम वर्ग ले रहा है। और विशेषतः उच्च तकनीकी क्षेत्रों पर मध्यम वर्ग का कब्ज़ा बढ़ता जा रहा है।
एक ओर भारत में अंग्रेजी बोलना अब विशेष बात नहीं रही , वहीँ अंग्रेजी से जुडी अर्थव्यवस्थाएँ धीरे धीरे सिकुड़ रहीं हैं। चार गुना अधिक खर्च करके अमेरिका में पढाई करके अब उतना लाभ नहीं है जितना पहले था। आय का भी अंतर उतना बड़ा नहीं है। कुछ समय में ये नुकसान वाला सौदा होने लगेगा। इस बदलाव को लोग नकार सकते हैं और नकारेंगे भी। हर बदलाव के साथ यह होता है और हर Bubble के साथ ऐसा होता है। लोग नकारते ही हैं कि Bubble अब फूटने वाला है। सच्चाई तो Bubble फूटने के बाद ही पता चलती है लेकिन समझदार लोग अपने निवेश को थोड़ा घटा लेते हैं , ताकि यदि Bubble फूटा और नुकसान हो तो अधिक न हो। यदि Bubble नहीं फूटा तो भी थोड़ा निवेश तो है ही। Bubble जब फूटता है तो भी कीमते शून्य नहीं होती , लेकिन अत्यधिक भी नहीं रह जाती।
समय आगे चलता है समाज थोड़ा पीछे। अंग्रेजी से जुडी अर्थव्यस्थाएँ धीरे धीरे घट रही हैं लेकिन उसके प्रभाव अंग्रेजी पर थोड़ा देर से आएँगे , पर आएँगे जरूर।
अंग्रेजी निवेश के लाभ घटेंगे तो निवेश कर रहे लोग इससे निकलेंगे। जब ये होगा तब तो विश्व देखेगा। अगले एक दशक में अंग्रेजी का पागलपन भारत के लोगों में भले ही बना रहे पर इससे होने वाले विशेष लाभ वैसे नहीं रहेंगे।
लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजी से समाज को हो रहा नुकसान जारी है। जो छात्र अपने जीवन का एक बड़ा समय अंग्रेजी को देगा उसमें गहराई कहाँ से आएगी। गहराई नहीं होगी तो शोध नहीं होगा। दशकों से अंग्रेजी में सोने , जगने वालों की भीड़ है लेकिन शोध नहीं हो रहा।
६ -जन जागृति इसका समाधान नहीं है।
इस विषय को केवल जन जागृति से हल नहीं किया जा सकता। गम्भीर नुकसान होने के बावजूद लोगों से हिन्दी माध्यम में पढ़ते रहने की अपेक्षा मूर्खता है। बीमारी शरीर के अंदर है तो मुँह धोते रहने से तो ठीक नहीं होगी। जब तक मूल कारण बने हुए हैं प्रेरणा काम नहीं करेगी।
समस्या समझने से समाधान स्वयं समझ में आगे लगते हैं। यदि मूल कारणों की समझ है तो समाधान मिल जाएँगे। हिन्दी में शिक्षा को लाभप्रद बना दो अपने आप माहौल बदल जाएगा। अंग्रेजी से जुडी अर्थव्यवस्थाओं का सिकुड़ना भारत को एक अवसर देगा , और उस समय के लिए भारत को तैयार रहना चाहिए। इसकी विस्तृत चर्चा तो अपने आप में एक बड़ा लेख हो जाएगा, कुछ समय बाद वह लेख भी आएगा।
हजारों और समस्याओं से जूझ रहा समाज इस विषय पर ध्यान नहीं देता। लेकिन भारत इससे बड़ी समस्याएँ हल कर चुका है। एक समय हिन्दी फ़ारसी लिपि में लिखी जा रही थी यहाँ तक कि लोगों ने संस्कृत को भी फ़ारसी लिपि में लिखना आरम्भ कर दिया था। एक समय ऐसा भी था जब लग रहा था कि भारत कभी आजाद नहीं होगा , आजाद होने के बाद फिर लग रहा था कि गरीबी हमेशा रहेगी। लेकिन समस्याएँ अपने समय पर हल होती रही है। अब शायद भाषा के अधिकार मिलने का समय आ गया है। मैं उन विचारों का नहीं हूँ जो हर समस्या के समाधान को राजनीति पर छोड़ दूँ। लेकिन अब ये समस्या बहुत विकराल है और बिना सरकारी हस्तक्षेप के हल नहीं होने वाली। इस विषय में समय समय पर आई सरकारों ने ही ये नहीं माना है कि मातृभाषा की आवश्यकता भी है इसलिए समस्या विकराल हुई भी है।
ये लेख लिखते का उद्देश्य भी हर हाल में मातृभाषा का प्रयोग करने की प्रेरणा देना नहीं है बल्कि समस्या के कारण लोगों तक पँहुचाना है। वे कारण समाप्त होंगे तो समस्या स्वतः हल हो जाएगी।
७- अब तो अंग्रेजी एक वर्चस्व है , इस समय क्या करें ?
अंग्रेजी के वर्चस्व को नकारने की आवश्यकता नहीं है वास्तविकता प्रत्यक्ष है । लेकिन थोड़ा संयम रखने की आवश्यकता है , पागलपन छोड़ने की आवश्यकता है। ये समझने की आवश्यकता है कि ये केवल अर्थव्यवस्था से जुडी ही बाते हैं कोई भाषा की विशेषताएँ नहीं हैं । अमेरिका और इंग्लैंड यद्यपि आज भी बड़ी अर्थव्यस्थाएँ लेकिन उस समय की तुलना में बहुत घट चुकीं हैं जिसके कारण इस भाषा का वर्चस्व आया था । अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त होने में करीब दस वर्ष का समय अब भी शेष है और उसके बाद भी अंग्रेजी की उपयोगिता शून्य नहीं होगी लेकिन ऐसी अंग्रेजी भाषा नहीं रहेगी जिसको सीखने से सरलता से कुछ लाभ मिल जा रहें हैं। इसलिए अपने निवेश को अंग्रेजी के आलावा कहीं और भी करें।
लेकिन ये मानकर ना चलें कि अगली पीढ़ी को अंग्रेजी जानने का उतना लाभ मिलेगा जितना पिछली पीढ़ी को मिला है। ये मानना सही नहीं होगा कि जो आज अमेरिका जा रहा है उसे भी वही अवसर मिलेंगे जो सुन्दर पिचाई और सत्य नडेला के समय के लोगों को मिल गए। यदि आप आज भी वही अवसर तलाश रहे हो तो आप वर्तमान नहीं भूतकाल देख रहे हो।
हिन्दी भाषा के कारण उद्योपति बने लोगों के भी नाम देख लेने चाहिए। एक हैं अलख पाण्डेय जिन्होंने हिन्दी को बातचीत का माध्यम रखते हुए अंग्रेजी माध्यम के विषय पढ़ाए , अब इनकी कंपनी एक यूनिकॉर्न है। इसी प्रकार बड़ा बिजनेस वाले विवेक बिन्द्रा भी हैं जो हिन्दी में मैनेजमेंट पढ़ाते हैं। कू एप्प भारतीय भाषाओँ के कारण बढ़ रहा है।
जिनकी व्यावसायिक विषयों में रुचि है वो जानते होंगे Blue Ocean और Red Ocean में क्या अंतर है ? अंग्रेजी एक Red Ocean है जहाँ हर कोई है और मारकाट मची है , मातृभाषा इस समय Blue Ocean है जहाँ अभी शान्ति है और उस शांति के कारण वहाँ कुछ सरल अवसर उपलब्ध भी हो सकते हैं बस अलख पाण्डेय या विवेक बिन्द्रा तरह उनका प्रयोग करने वाला चाहिए।
मौलिक लेख.
सन्दीप दीक्षित
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