सही रूप है हिन्दी। भारत सरकार हिन्दी को हिंदी लिखती है , इसका कारण हिंदी का सही होना नहीं है। इसका कारण 1960 के दशक में किया गया मानकीकरण है।
मैं सुधार के विरोध में नहीं हूँ , लेकिन सुधार से आत्मा ही बदल जाय। जो मूल सिद्धान्त है उसी पर चोट हो जाये। जिस देवनागरी के कारण हिन्दी की प्रसंशा की जाती है उसके प्राण पर ही चोट कर दी जाये तो गलत है।
मानकीकरण ने भ्रम पैदा कर दिया। ये प्रश्न ही , कि “हिंदी सही है या हिन्दी?” मानकीकरण की देन है। उससे पहले तो हिन्दी ही सही था।
शायद कुछ ऐसी सोच रही होगी : अंग्रेजी में एक n ही होता है , हमारे यहाँ तो कितने सारे हैं। लोगों को समझ में ही नहीं आता कि मन्जन लिखे या मञ्जन लिखें या क्या लिखें। इसलिए हटा दो, हो गया सरल। हो गई हिन्दी लोकप्रिय। सोचा होगा कि मानकीकरण होते ही युवा अंग्रेजी छोड़ हिन्दी की और दौड़ने लगेगा।
व्यंग्य एक और छोड़ दें तो कहा जाता है कि एक जमाने में टाइपराईटर पर कुञ्जियों की कमी के कारण ये चलन मजबूरी में आया था , लेकिन अब वो मजबूरी नहीं रही है अब तो टाइप राईटर का स्थान कम्प्यूटर और मोबाइल कीबोर्ड ने ले लिया है जिन पर कितने भी वर्ण उपलब्ध कराए जा सकते हैं।
सरलता उतनी ही सही है जितनी से मूल सिद्धान्त न मर जाए।
"देवनागिरी को जैसा लिखते हैं ठीक वैसा ही पढ़ते हैं " यही भावना ख़त्म हो गई। भ्रम बढ़ने लगे , एक ही शब्द को लोग अलग अलग तरह से पढ़ने लगे हैं।
चीनी को या जापानी को अपनी लिपि बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ी। और भारत का युवा आज भी अंग्रेजी की और ही जा रहा है , बल्कि उसकी मुश्किलें बढ़ा दी आपने।
अब बताइये कि एक नया व्यक्ति इसको क्या पढ़ेगा ? गं गणपतये नमः।
ये जो गं है , इसको कोई गम् पढता है , कोई गन् पढता है , कोई गण पढता है।
या देवी सर्वभूतेषू शक्ति रूपेण संस्थिता।
संस्थिता को क्या पढ़ा जाए ? कई उच्चारण प्रचलित है।
तो सरकार क्या लिख रही है छोड़िये। शुद्ध , स्पष्ट , भ्रमरहित रूप हिन्दी है।
बुद्ध को बुद् ध लिखने में मुझे कोई परेशानी नहीं , क्योकि उससे सिद्धान्त नहीं बदलता। और नई नई हिंदी या देवनागिरी सीखने वाले को कोई भ्रम नहीं होगा कि आधा वर्ण कौन सा है। ये बदलाव अच्छा था।
रव और ख के भ्रम कोई मिटाने के लिए मानकीकरण से पहले परिवर्तन हुए थे. अब लिखते समय वो ख मिला हुआ अक्षर दिखता है , रव की तरह नहीं। इससे पहले “रवी कुमार का दवाखाना” को भ्रमवश “खी कुमार का दवारवाना” पढ़ा जा सकता था , जो भ्रम अब मिट गया। उससे केवल अक्षर की आकृति में थोड़ा बदलाव लाया गया था, ये भी ठीक था। इन्होने लिपि के सिद्धांत से छेड़छाड़ नहीं की थी। इसी तरह अ , झ , ण वर्णों की लिखावट में भी बदलाव आये , जो अच्छे थे। पुराने अब प्रचलन में नहीं है।
भाषा तोड़ बिगाड़कर कर सरल करके लोकप्रिय बनाने दिवास्वप्न है , समझिए कि मूल कारण कहाँ है। वो मूल कारण आपको रोजगार और उच्च शिक्षा की प्रवेश परीक्षाओं में मिलेंगे। सत्तर के दशक तक हिन्दी माध्यम स्कूल लोकप्रिय थे । लेकिन जब हिन्दी माध्यम से पढा विद्यार्थी उच्च शिक्षा की प्रवेश परीक्षा देता था तो हिन्दी का प्रश्न पत्र मौलिक ना होकर अंग्रेजी प्रश्न पत्र का एक ऊँट पटांग अनुवाद होता था । ये अनुवादित भाषा विद्यार्थी के लिए अजनबी होती थी । इन बुरे अनुभवों को अन्यो को बताता था । इसलिए सब अंग्रेजी की और मुडने लगे , नहीं तो अपनी मातृभाषा का तिरस्कार अच्छा नही लगता । जब तक मूल कारण है , कोई और प्रयास नहीं काम करेगा। जब समस्या का मूल कारण समाप्त हो जायेगा तो भाषा का तोड़ कर सरल करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। आज हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करके उसको सरल बनाया जा रहा है , पर हिन्दी में प्राण नहीं आ रहे। अगर अंग्रेजी ही सरल है तो पूरी तरह से अंग्रेजी में क्यों नहीं जा रहे ? वहाँ तो तर्क ये है कि मातृभाषा में ठीक से समझ में आता है , इसलिए अंग्रेजी ठीक नहीं।
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