गमछा। गामुसा। गात-मुशा। गातृ-गात-गा = शरीरं… मुसना या मुशना = पोंछना। गात्रं मशी रहितं कर्तुम् प्रयुक्तं वस्त्रम् इति भाव: प्रायः।
अर्थात् शरीर के पोंछने या साफ करने में के काम आनेवाला वस्त्र, गमछा कहलाता है।
भारत में तौलिया, हैंकी, हेंकरचिप आदि से पुराना, किन्तु उत्तरीय, अंगवस्त्र, शाल, दुशाला आदि से कम सम्मान वाला साथ ही उपरोक्त सभी सम्मान प्राप्त वस्तुओं से अधिक सक्रिय, परिश्रमी तथा उपयोगी वस्रखण्ड, गमछा कहलाता है।
सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, गमछों के स्थान, रंग, धर्म, आजीविका आदि भी निर्धारित हैं। तदनुरूप उसके सम्मान व प्रयोग आदि का महत्व भी भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है।
सबसे अधिक जो गमछा भारत में सर्वत्र-प्रायः पाया जाता है, और जिसका सबसे कम सम्मान होता है वह है लाल… मूल्य की दृष्टि से भी सबसे ज्यादा सस्ता… साहब लोगों की कोठी में खाना बनाने वाले खानसामों/महाराजों के गले में लटका, मजदूरों के सिर पर कुण्डली मारकर बैठा, झाड़ा-पेशाब के दौरान ग्रामीणों के लिए तहमत का बरमूडा वर्जन बना, फिल्मांकित नक्सलियों के गले का हार, श्राद्धभोजनभुक्त ब्राह्मणों हेतु देय वस्त्ररूप में सर्वाधिक उपयुक्त और आम लोगों के लिए सुलभ, सुलभ-शौचालयों का अघोषित किन्तु सर्वस्वीकृत यूनिफॉर्म, गरीबी का सुघड़ परिचायक व निम्न आयवर्गीय जनमानस हेतु पारितोषिक के रूप में परिवर्तनार्थ प्रचलित, लाल-गमछा।
बंगाल, जोकि लाल-सलामियों का कभी गढ़ रहा है। जहाँ कम्युनिस्टों ने लम्बे समय तक राज भी किया, किन्तु गमछा पूरी तरह लाल न कर सके। वहाँ गमछे पर लालिमा किनारी तक ही रही, शेष भाग सफेद, घी रंग, मटमैला या मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में हरा हो गया।
ओडिशा में गमछे का वर्ण काषाय-प्रायः है। खासे माँसाहारी प्रदेश में यह वैराग्य वर्णी गमछा जाने क्यों प्रसिद्धि पा गया? बहुधा यहाँ के लोगों को नहाते समय उक्त प्रकार के दो गमछों का प्रयोग करते पाया जाता है। एक अधोवस्त्र स्वरूप लिपटा होता है, तो दूसरा शरीर को रगड़ने के कार्य में संलग्न। उसी तरह मणिपुरी नहाते हुए अपने सफेद धारीयुक्त लाल गमछे को भिगो कर, गोल बनाते हैं और उस से एड़ी रगड़ते हैं। दोनों में नाम व मान की दृष्टि से कोई भेद है या नहीं… किन्तु नए को ऊपर तथा पुराने या उड़े से रंग वाले को नीचे प्रयोग करते प्राय देखा जाता है। यह भी एक प्रकार का वर्ण-भेद है अथवा गमछों का वर्ग-भेद?
असम प्रदेश ने जितना गमछे को सम्मान दिया, शायद ही किसी अन्य क्षेत्र में प्राप्त हो। प्रायः आसाम के गमछे उत्तरीय से भी अधिक सम्मानप्राप्त होते हैं। यही वह क्षेत्र है, जहाँ रेशम के भी गमछे बहुतायात में पाए जाते हैं। इसके रंग, बनावट आदि पर विशेष कुछ न लिखकर श्रीसुनील दत्त जी के नेतागिरी के दौर की कोई भी छवि याद कर लें या आजकल के बड़बोले, स्वघोषित सर्वाधिक योग्य व ईमानदार श्रीयोगेन्द्र यादव जी के गले का आभूषण ही ध्यान से देखें या फिर उत्तरपूर्व-भारत में चुनाव निकट हों और तभी योग दिवस का सुयोग बने तो योग करते मोदी जी भी धारण किये दिखेंगे ही। यही वह सफेद, लाल किनारी वाला गमछा है, जिसके चारों ओर लाल ऊन के धागों से बनी हुई बनावट और बीच में सूती, खादी अथवा रेशम का श्वेत या दूधिया रंग का कपड़ा होता है।
असम में किसी भी स्वागत द्वार में पायदान के ऊपर बिछे इसी गमछे की अनुकृति सर्वत्र सुलभ है। यहाँ के कला, संस्कृति व सम्मान का प्रतीक है यह गमछा। कितने ही बड़े व्यवसाय का, कितना ही महंगा व नामी तौलिया क्यों न हो, किसी अतिथि को स्वागतार्थ मञ्च पर भेंट नहीं किया जाता; जबकि आसामी गमछे को देकर लोगों का सम्मान करना व पाकर गर्वान्वित होना, आम बात है।
गमछों के आकार, सम्मान व महार्घता (मूल्य वृद्धि) के साथ दक्षिण की यात्रा और भी रोचक है। यहाँ के लोग शादी-ब्याह से लेकर संसद तक सगर्व धोती से छोटी, गमछे से बड़ी किन्तु लुंगी से भिन्न, वेष्टि से लिपट कर सुखानुभव करते हैं। सर्वत्र निःसंकोच विचरते हैं और औपचारिकताओं के बन्धन से मुक्त होते ही लुंगी या वेष्टि को ऊपर चढ़ा, गमछा सुख लेने से भी नहीं चूकते। एक बहुत पुराना और सस्ता सा चुटकुला भी इसी से जुड़ा है कि ‘मद्रास का नाम चेन्नई क्यों किया गया? क्योंकि उनके वेष्टि अर्थात लुंगी में चेन नहीं होती।’ अस्तु…
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा व पञ्जाब आदि में श्वेत, सूती के गमछों का प्रचलन अधिक मात्रा में होता है। यह गुणवत्ता में उत्कल व बंगाल के गमछों का नहाया-धोया, साफ-सुथरा, सगोत्री भाई प्रतीत होता है; किन्तु असम के गमछे से आकार में बड़ा व सम्मान में छोटा होता है। गले में पड़ा एक बारहमासा गमछा, पगड़ी, शिरस्त्राण, मुखावरण से लेकर, दो एक दिन बिना झोले के घर से बाहर जाने पर भी ओढ़ना, बिछौना, पोंछना, पहनना, बदलना आदि में से एकाधिक भूमिका निभाने में भी सक्षम होता है।
श्वेत रंग का एक अन्य गमछा, प्रायः पूरे भारत में सर्वस्वीकृत-सा है। इसकी किनारी तीन रंगों से रंगी होती है। लाल व समान अन्तराल के बाद हरे रंग से। बीच में गमछे का अपना नैसर्गिक श्वेत रंग तिरंगे का भान कराता है, अतः बिना किसी क्षेत्र, भाषा, जाति, धर्म आदि के भेद के सभी जगह सम्मान पाता है। यही गमछा जब किसी परिश्रमी के स्वेद कणों से भीग कर, अपने स्वाभाविक रंग को खो, पीलेपन को पा जाता है; तो गृहस्थ से विरक्त हो, संन्यस्त हुए युवा सन्यासी-सा सम्मान पाता है।
सावन के महीने में अल्पकालिक शिव भक्तों के पास एक पीले या केसरिया रंग का गमछा भी देखने को मिलता है। इसका आकार-प्रकार और गुणवत्ता पूर्व निर्धारित नहीं होते। भक्त की सम्पन्नता या विपन्नता का उत्कीरण ही इसमें परिलक्षित होता है। जैसे भक्त अल्पकालिक वैसे इसका वर्ण भी। दुर्भाग्यवश इस गमछे से धीरे-धीरे श्रद्धा का रंग भी उतर रहा है।