क्या आपने कभी ध्यान दिया कि हिन्दी में देखने की शैलियाँ अनेक हैं और अलग-अलग हैं। कोई किसी को तिरछी नज़र से देखता है तो कोई उड़ती नज़र से। किसी के कनखियों से देखने पर युवा मन ही नहीं, सहृदय कवि-कलाकार भी भटक जाते हैं। कुछ लोग देखते-देखते दिल लगा बैठते हैं और कुछ देखते ही रह जाते हैं।
लड़की देखना एक रस्म है जिसमें लड़की ही नहीं, लड़की के पिता की हैसियत भी देखी जाती है कि कितना उसे निचोड़ा जा सकता है। रोगी को चिकित्सक भी देखता है और सेवा-शुश्रूषा करनेवाला भी, लेकिन दोनों का देखना भिन्न है। किसी को आप आँख दिखा कर डरा सकते हैं किन्तु आँखों के चिकित्सक को नहीं। सिनेमा देखना, किराए का मकान देखना, लड़की के लिए लड़का देखना- इन तीनों स्थितियों में देखने का आशय एक ही नहीं है।
वैद्य जी जब कहते हैं “एक सप्ताह तक यह दवा लेकर देखो” तो उनका आशय यही नहीं होता कि तुम सप्ताह भर कुछ न देखो और सप्ताह के बाद आँखें खोलकर आसपास देखो। ऐसा भी नहीं है कि स्पष्ट रूपाकार वाली वस्तुएँ ही देखी जाती हैं। प्यार, क्रोध, स्वभाव, कष्ट, सुख, सन्तोष आदि भाववाचक संज्ञाएँ रूपाकृति विहीन होने पर भी देखे जाते हैं। घूरकर देखने वाले को उत्तर में आँखें तरेरकर देखा जाता है या आँखें फाड़कर, या कोई कहता है, “देख लेंगे तुम्हें!” जब कि यह कहते हुए भी वह देख रहा होता है।
किसी का देखना तो देखना कम, गोली बरसाना अधिक है - “अँखियों से गोली मारे” मानो आँख न हुई, पिस्तौल हो गई। प्यार से देखने पर कोई खिंचा चला आता है और क्रोध से देखने पर भाग उठता है।
देखने के और भी प्रकार हैं। आप किसे कैसे देखते हैं, यह आप जानें।