जब श्रेष्ठ में चरम भाव है तो उसे श्रेष्ठतम क्यों बनाएँ?

तुलनात्मक रूप से अच्छा बताने के लिए हिन्दी में ‘उससे / उसकी अपेक्षा अच्छा’ या चरम अवस्था बताने के लिए ‘सबसे अच्छा’ का प्रयोग होता है। कुछ स्थितियों में, विशेष कर तत्सम शब्दों के साथ, हम तुलनावस्था, चरमावस्था के लिए क्रमशः संस्कृत के -तर(प्), -तम(प्) प्रत्ययों का उपयोग करते हैं या कभी-कभी ईयन्, ईष्ठ
का जैसे बलीयान्, बलिष्ठ। इसके उदाहरण हिन्दी में बहुत कम हैं।

तत्सम शब्दों में उत्तम और श्रेष्ठ/श्रेष्ठतम/सर्वश्रेष्ठ जैसे प्रयोग भी देखे जाते हैं।

उपसर्ग ‘उत्’ से सीधे ही ‘तम(-प्)’ प्रत्यय जोड़कर “उत्तम” बना लिया गया है। ‘श्रेष्ठ’ (प्रशस्य + इष्ठन्, अतिशयेन प्रशस्यः, प्रशस्यस्य श्र आदेशः) संस्कृत में परमावस्था का ही सूचक है। इसलिए पूछा जाता है कि हम उसके सिर पर ‘तम’ का अवांछित भार लादकर उसे डबल-सुपरलेटिव ‘श्रेष्ठतम’ (सबसे श्रेष्ठ) क्यों बना देते हैं।

जब श्रेष्ठ में चरम भाव है तो उसे श्रेष्ठतम क्यों बनाएँ?

प्रश्न व्याकरण की दृष्टि से अच्छा है किन्तु जीवित भाषा तो बहता नीर होती है। वह व्याकरण की चिन्ता नहीं करती, भाषा के प्रयोक्ता ही उसका मार्ग निर्धारित करते हैं। श्रेष्ठतम का प्रयोग बहुत प्राचीन काल से खूब चल रहा है और सर्वश्रेष्ठ तो है ही। सर्वोत्तम और उत्तमोत्तम भी हैं वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में भी श्रेष्ठतम पद का प्रयोग देखा गया है।

ॐ त्वोर्जे त्वा वायवस्थो पायवस्थ देवोवस्सविता प्रार्पयतु “श्रेष्टतमाय” कर्मणे ।।
यजुर्वेद, १/१

महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में कहा है

‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।’

कहने का तात्पर्य यह कि हिन्दी में वर्तनी, व्याकरण की चिन्ता करने के अनेक विषय हैं, किन्तु श्रेष्ठतम, सर्वोत्तम उनमें नहीं है।

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