चर्पटपञ्जरिका शब्द का अर्थ

“चर्पटपञ्जरिका” शब्द शंकराचार्य द्वारा रचे गए “चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्” से प्रसिद्ध हुआ है। हम में से अधिकांश इस स्रोत से परिचित हैं, किन्तु इसके नाम से नहीं।

चर्पटपञ्जरिका शब्द चर्पट तथा पञ्जरिका इन दो शब्दों के संयोग से रचा गया है। चर्पट के यह अर्थ हैं :—

चर्पटः, पुं, (चृप् दीप्तौ + अटन् ।) स्फारः । विपुलः । चपेटः । पर्पटः । इति मेदिनी । — कल्पद्रुमः

चर्पट का अर्थ है जो विपुल हो, विस्तृत (स्फार) फैला हो, दीप्तिमान हो। पूर्ण रूप से फैली / खुली हथेली को भी चर्पट कहते हैं; उससे होने वाले आघात, तमाचे-थप्पड़-झापट, को भी चर्पट ही कहते हैं। और; पर्पट (पोपट — तोते) को भी चर्पट कहते हैं।

पञ्जरिका (पञ्जर + ठक् + टाप्) शब्द पञ्जर से रचा गया है। पञ्जर के यह अर्थ हैं :—

पञ्जरम्, क्ली, (पञ्ज्यते रुध्यते उदरयन्त्रमनेन । पजि रोधे + अरन् ।) कायास्थिवृन्दम् । शरीरास्थिपञ्जरम् । (यथा, पञ्चदशी । ६ । १७३ । “देहादिपञ्जरं यन्त्रं तदारोहोऽभिमानिता । विहितप्रतिषिद्धेषु प्रवृत्तिर्भ्रमणं भवेत् ॥” पञ्ज्यते रुध्यते पक्ष्यादिरत्र ।) पक्ष्यादिबन्धगृहम् । इत्यमरभरतौ । पिंज्रा इति भाषा । तत्पर्य्यायः । शालारम् २ । इति जटाधरः ॥ (यथा, हेः रामायणे । २ । ६५ । ५ । “तेन शब्देन विहगाः प्रतिबुद्धाश्च सस्वनुः । शाखास्थाः पञ्जरस्थाश्च ये राजकुलगोचराः ॥”)

पञ्जरः, पुं, (पञ्ज्यते रुध्यते आत्मा यस्मिन् । पजि - रोधे + अरन् ।) शरीरम् । इति त्रिकाण्डशेषः ॥ (यथा, हठयोगदीपिकायाम् । ४ । १८ । “द्वासप्ततिसहस्राणि नाडीद्बाराणि पञ्जरे । सुषुम्ना शाम्भवी शक्तिः शेषास्त्वेव निरर्थकाः ॥” “पञ्जरे पञ्जरवच्छिरास्थिभिर्बद्धे शरीरे ।” इति तट्टीका ॥) देहास्थिसमूहः । तत्पर्य्यायः । कङ्कालः २ देहबन्धास्थि ३ । इति जटाधरः ॥ कलियुगम् । गवां नीराजनाविधिः । इति सारस्वताभिधानम् ॥

पञ्जरिका शब्द को काया रुपी पिंजरा के अर्थ में तथा चर्पट शब्द को आत्मा रुपी पोपट (अथवा तोते) प्रयोग कर रचा सामासिक शब्द “चर्पटपञ्जरिका” मानव शरीर पिंजर में बन्दी तोते रुपी आत्मा के लिए प्रयोग किया गया है।

इस आत्मा रुपी तोते के उद्धार के लिए शंकराचार्य ने चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् की रचना की। यह स्रोत है “भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते” अर्थात (इस काया रूपी पिंजर से मुक्ति पाने के लिए) हे मूढ मति वाले (मूर्ख) प्राणी गोविन्द नाम का भजन कर! कहते हैं कि श्री आदिशंकराचार्य ने एक दिन वाराणसी की एक गली में एक वृद्ध विद्वान को बारम्बार पाणिनी के संस्कृत व्याकरण के नियमों का पाठ करते देखा (डुकृञ्करणे व्याकरण के आधारभूत नियम हैं)। तब आदिशंकराचार्य ने उन्हें इस भजन के रूप में उपदेश दिया कि वे अपना जीवन व्याकरण पाठ कर व्यर्थ न करें; अपितु, गोविन्द (ज्ञान, प्रकाश, आदि को जानने वाले श्रीकृष्ण) की पूजा और आराधना में लगकर अपना मन ब्रह्म पर लगाएँ। यही उन्हें जीवन और मृत्यु के इस दुष्चक्र से बचाएगा।

आदिशङ्कराचार्य द्वारा रचित चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र मूल पाठ तथा भावार्थ

भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥

हे मूर्ख, गोविन्द का भजन कर, गोविन्द का भजन कर, गोविन्द का भजन कर। जब मृत्यु निकट आती है, तो यह व्याकरण के सूत्र स्मरण करना (डुकृङ्करण) रक्षा नहीं करता।

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायाताः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥१॥भज …

दिन और रात, सन्ध्या और प्रातः, शिशिर और वसंत लौट आते हैं; (किन्तु) समय खेलता है, जीवन जाता है, अति आशा की वायु (दुषित स्नेह) से मुक्त हो!

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥२॥ भज …

अग्नि समक्ष है, सूर्य पीछे है, रात ठुड्डी घुटनों से जा मिली; हाथ पसारे भीख माँगता और पेड़ के नीचे वास करना भी; अति आशा के पाश से मुक्त हो!

यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः ।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति को॓ऽपि न गेहे॥३॥ भज …

जब तक धन जुटाने में लगा है, तब तक परिवार पूछता है; फिर जब जर्जर शरीर में घिसटता है तब कोई घर नहीं पूछता।

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायांबरबहुकृतवेषः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोको ह्युदरनिमित्तं बहुकृतशोक: ॥४॥ भज …

जटा वाला मुण्ड; अथवा मुण्डन किये केश; भगवा वस्त्र अथवा बहुत से वेश; देखते हुए भी जग नहीं देखता कि पेट के लिए कितने दुःख सहे।

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गाजललवकणिका पीता ।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम् ॥५॥ भज …

भगवद गीता का थोड़ा अध्ययन कर; गंगाजल और लवण के दाने पी; जिसने मुरारी एक बार भी अर्चना की यम उसकी क्या चर्चा करें?

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम् ॥६॥ भज …

अंग गाल जाते हैं; शिर गँजा; मुँह दांतों के बिना; बूढ़ा लाठी के सहारे चले-चला जाता है, किन्तु आशा की गांठ नहीं छूटती।

बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥७॥ भज …

बचपन में खेलने से लगाव रहा; यौवन में युवती से; बुढ़ापे में चिन्ता में पड़ा; ब्रह्म से लगाव कभी न किया। (“यह सजन रे झूठ मत बोलो” के अन्तरे “लड़कपन खेल में खोया, जवानी नीन्द भर सोया, बुढ़ापा देख कर रोया(२), यही किस्सा पुराना है” की बरबस याद दिला देता है।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥८॥ भज …

बारम्बार कोई जन्म लेता है; मरता है, और फिर कोई अपनी मां के गर्भ में सोया रहता है; हे मुरारी! आप दया कर इस संसार में मेरी रक्षा करो जिससे वास्तव में बचना कठिन है।

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः ।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ॥९॥ भज …

फिर रात होती है, फिर दिन दिन निकलता है, फिर पखवाड़ा, फिर महीना बीतता है; फिर से अयन (उत्तरायण/दक्षिणायन) होता है और वर्ष होता है; तो भी अमर-आशा से मुक्त नहीं होता।

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्वे कः संसारः ॥१०॥ भज …

बुढ़ापे में क्या काम-विकार? सूखा पानी तो क्या तालाब ? खोई हुई संपत्ति तो क्या परिवार? तत्व-ज्ञानी को क्या संसार?

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम् ।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम् ॥११॥ भज …

नारियों के भरे स्तन, सुन्दर नाभि, यह झूठा भ्रम, मोह का प्रभाव है; इस पर अपने मन में बारम्बार विचार कर

कस्त्वं कोऽहं कुतः आयातः का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥१२॥ भज …

तुम कौन हो? मैं कौन हूँ? तुम कहाँ से आए हो? मेरी माँ कौन है? और मेरे पिता कौन हैं? इस प्रकार के स्वप्न-विचारों को तज कर इस प्रकार सब के सार अमूर्त विश्व का ध्यान कर।

गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् ।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥१३॥ भज …

गीता का हजारों बार गान कर, भगवान के अनंत रूप को मन में धर; सज्जन का संग सदा श्रेयस्कर, दीनजनों का पोषण कर!

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥१४॥ भज …

जब तक जीव शरीर में रहता; सभी पूछते यह घर कैसा; जब प्राणवायु शरीर तज देती है तो पत्नी भी उस शरीर से डरती है।

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥१५॥ भज …

भोग रमण कर सुख पाता है; फिर शरीर में रोग आता है; मृत्यु इस लोक की अन्तिम शरण है; किन्तु, पाप का आचरण नहीं छूटता!

रथ्याकर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः ।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ॥१६॥ भज …

मार्ग पर मलिन वस्त्र; फटे चिथड़े; पुण्य और पुण्य से रहित मार्ग पर मैं नहीं, तुम नहीं, जगत भी नहीं; फिर शोक करने का अर्थ क्या है?

कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥ भज …

गंगासागर में जाता है; व्रत पालन करता अथवा दान देता है; किन्तु, इस सत्य ज्ञान के बिना, वह सौ जन्मों में मुक्ति प्राप्त नहीं करता है। अतः हे मूढ़मति गोविन्द का भजन कर!

चर्पट को चपत अथवा चपटे के अर्थ में प्रयोग करने के अपेक्षा चर्पट को तोते के अर्थ में लेना अधिक युक्तिसंगत है; क्योंकि, इस भजन में चर्पटपञ्जरिका को शरीर के पिंजरे (पञ्जरिका) में बन्द तोते रुपी जीवात्मा के समान हरिभजन करने की अनुशंसा की गई है। आदिशंकराचार्य ने अपने इस भजन के साथ जनसाधारण के लिए ज्ञान और गोविन्द की भजन-भक्ति का उपदेश दिया है।

भज गोविन्दं को मोह मुद्गर (जो मोह का विनाश कर दे) भी कहा जाता है।


© अरविन्द व्यास, सर्वाधिकार सुरक्षित।

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