बचपन में एक कविता पढ़ी थी, घट की व्यथा, मैं शुद्ध मौलिक कविता की खोज में हूँ। अन्तर्जाल पर उपलब्ध कई लेख स्मृति पर आधारित हैं और त्रुटिपूर्ण प्रतीत होते हैं। नीचे लिखा संस्करण काम चलाऊ तो है पर कितना सही है पता नहीं। यदि किसी के पास मूल प्रति हो तो साझा करे।
कुटिल कंकडों की कर्कश रज,
घिस घिस कर सारे तन में,
किस निर्मम निर्दयी ने मुझको,
बाँधा है इस बन्धन में।
फाँसी सी है पड़ी गले में,
नीचे गिरता जाता हूँ,
बार बार इस महाकूप में,
इधर उधर टकराता हूँ।
ऊपर नीचे तम ही तम है,
बन्धन है अवलम्ब यहाँ,
ये भी नहीं समझ में आता,
गिरकर मैं जा रहा कहाँ।
काँप रहा हूँ विवश करूँ क्या,
नहीं दीखता एक उपाए,
ये क्या ये तो श्याम नीर है,
डूबा अब डूबा मैं हाय।
भगवन् हाय उबार मुझे लो,
तुम्हैं पुकारुँ मै जब तक,
हुआ तुरन्त निमग्न नीर मैं
आर्तनाद करके तब तक।
चला जा रहा हूँ ऊपर अब,
परिपूरित गौरव लेकर,
क्या उऋण हो सकूँगा मैं,
ये नवजीवन भी देकर?