इनकी व्युत्पत्ति के आधार पर इन शब्दों में अन्तर कर सकते है। यह सभी शब्द संस्कृत शब्दों के तद्भव अथवा तत्सम रूपों में हैं।
संस्कृत भाषा में व, वा, यथा, तथा, इव, एवं, यह सभी समानार्थक शब्द हैं। इन्हें समानता के आधार पर समुच्चयों में वस्तुओं के नामों में अन्तर स्पष्ट करने के लिए जोड़ा जाता है।
व वा यथा तथेवैवं साम्येऽहो ही च विस्मये। मौने तु तूष्णीं तूष्णीकां सद्यः सपदि तत्क्षणे॥ — अमरकोश
अतः ‘व’, ‘वा’, ‘यथा’, ‘तथा’, ‘एवं’ किसी समुच्चय के अवयवों (विभिन्न सदस्यों, भागों) के मध्य अव्यय (विभक्ति, लिङ्ग, वचन, आदि के परिवर्तन से अप्रभावित शब्द) के रूप में प्रयोग करते हैं।
‘और’ एक तद्भव शब्द है। ज्ञान रहे इसका संस्कृत स्वरूप अन्य शब्दों का पर्याय नहीं है।
इन सभी शब्दों के कुछ विशेष अर्थ हैं जिनका वर्णन आगे दिया गया है।
और
संस्कृत भाषा के शब्द ‘अपर’, ‘अपरम्’ का तद्भव रूप है ‘और’, प्राकृत में यह ‘अपर’, तथा ‘अवर’ इन दो स्वरूपों में मिलता है।
अपरः, त्रि, (न पृणाति प्रीणयति, पॄ + पचाद्यच, ततो नञ्समासः ।) अन्यः । इतरः । अर्ब्बाचीनः । इति मेदिनी ॥ — कल्पद्रुमः
अपरं का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में देखा जा सकता है :—
यूयं देवाः प्रमतिर्यूयमोजो यूयं द्वेषांसि सनुतर्युयोत ।
अभिक्षत्तारो अभि च क्षमध्वमद्या च नो मृळयतापरं च ॥— ऋग्वेद २.२९.२॥
और शब्द के मूल अर्थ है :—
- पीछे का
- इसके उपरान्त, इसके अतिरिक्त, इसके बाद का
- भिन्न, अलग
- दूसरा
- इससे पहले का
- मित्रवत भाव वाला, परिचित
- पश्चिम
- दूर का
चूँकि यह एक तद्भव शब्द है, इसलिए इसके तुलनात्मक शब्दों की विवेचना भी कर लें :—
- रोमानी (युरोपीय जिप्सी भाषा) aver (अवेर), वेल्श रोमानी vavēr (वावेर) — दूसरा, ō, ū (और, तथा)
- काटि काफ़िरी : ʻअन्यʼ; वैगाली उरुणा ʻदूसरा, अन्यʼ; दामेली वारेँ, कलश वारँग; खोवर होर ʻअन्य, दूसरा, भिन्नʼ ओर (और), शुमास्ती वरे ʻअन्यʼ; शीन ओरा ʻइसके अलावा, अन्य, भिन्नʼ;
- कश्मीरी वोरा ʻसौतेलाʼ यथा.˚वोराबेनेʻ (सौतेली बहन), डोडी होरो (अन्य)
- पहाडी, कुमाऊँनी होर ʻ अन्य, और (अधिक,) ʼ, अर (और)
- नेपाली अरु ʻअन्यʼ, अर्को
- असमिया आरु ʻ और अधिक ʼ,
- बंगाली आर, आरु (और, दूसरा)
- उड़िया आर ʻऔर अन्यʼ, आरका ʻ एक औरʼ; औरि, औ
- भोजपुरी आवर (और)
- अवधी. औरु,
- हिन्दी, मारवाड़ी और
- हिन्दी/उर्दू औ
- सिन्धी अवर ʻ hinder, western ʼ.
- गुजराती ओर
- तमिऴ अपरम्, (इसके बाद, और)
तथा
संस्कृत भाषा में तथा एक से अधिक समान वस्तुओं के समुच्चय अथवा समूह का बोध कराने के लिए प्रयोग करते हैं।
तथा, व्य, (तेन प्रकारेण । तद् + “प्रकारवचने थाल् ।” ५ । ३ । २३ । इति थाल् । तेन प्रकारेणेत्यर्थः । यथा, मनुः । १ । ४ । “स तैः पृष्टस्तथा सम्यगमितौजा महात्मभिः । प्रत्युवाचार्च्च्य तान् सर्व्वान् महर्षीन् श्रूयतामिति ॥”) साम्यम् । इत्यमरः । ३ । ४ । ९ ॥ (यथा, मनुः । ६ । ९० । “यथा नदीनदाः सर्व्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् । तथैवाश्रमिणः सर्व्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ॥”) अभ्युपगमः । पृष्टप्रतिवाक्यम् । समुच्चयः । (यथा, देवीभागवते । १ । २ । २६ । “सपादलक्षञ्च तथा भारतं मुनिना कृतम् । इतिहास इति प्रोक्तं पञ्चमं वेदसम्मतम् ॥”) निश्चयः । इति मेदिनी । थे, ३६ ॥ (यथा, रघुः । १ । २९ । “तं वेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना । तथा हि सर्व्वे तस्यासन् परार्थैकफला गुणाः ॥”) — कल्पद्रुमः
हिन्दी में यह शब्द तत्सम रूप में ही आया है। इसे समानता, इस प्रकार, भी, यह भी, वैसा ही, के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए “यथा नाम तथा गुण” में ‘यथा’ का अर्थ ‘जैसा’ और ‘तथा’ का अर्थ ‘वैसा ही’ है।
तथा के विशेष अर्थ सत्य, सीमा, निश्चय, एवं समानता हैं।
इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में देखा जा सकता है, यथा :—
न देवानामति व्रतं शतात्मा चन जीवति ।
तथा युजा वि वावृते ॥— ऋग्वेदः १०.३३.९॥
तथा के तद्भव रूप में यह शब्द बने हैं :—
- पालि भाषा : तथा
- प्राकृत : तथाँ, तधा, तहाँ
- रोमानी (वेल्श रोमानी) thā ʻतथाʼ, ग्रीक रोमानी . ta (ता), डुमाकी ta (ता);
- अश्कुन काफ़िरी ता ʻ अथवा, तथा ʼ;
- पशाई था ʻ तब ʼ;
- कश्मीरी ता ʻतथा ʼ;
- लहंदा ताँह, ताँ ʻ तो’
एवम्
एवम् भी समुच्चय बोधक शब्द है, यह भी तत्सम रूप में ही हिन्दी भाषा में भी प्रयोग किया जाता है।
एवम्, व्य, साम्यम् । सादृश्यम् । यथा । अग्निरेवं विप्रः । अग्निरिवेत्यर्थः । तत्पर्य्यायः । वत् २ वा ३ यथा ४ तथा ५ इव ६ । वत्स्थाने व इति केचित् पठन्ति । अयं प्रकारः । (यथा, कुमारे । ६ । ८४ । “एवंवादिनि देवर्षौ पार्श्वे पितुरधोमुखी” ॥) तत्पर्य्यायः । इत्थम् २ । अवधारणम् । इत्यमरः ॥ यथा । एवमेतत् । अस्य पर्य्यायः एवशब्दे लिखितः । अङ्गीकारः । अर्थप्रश्नः । परकृतिः । पृच्छा । इति मेदिनी ॥ — कल्पद्रुमः
‘एवं’ अनुपूरक शब्द है। यह शब्द ऋग्वेद में प्रयोग हुआ है, यथा :—
यथा देवा असुरेषु श्रद्धामुग्रेषु चक्रिरे ।
एवं भोजेषु यज्वस्वस्माकमुदितं कृधि ॥— ऋग्वेदः १०.१५१.३॥
इस शब्द का स्वीकृति, पुष्टि, समर्थन करने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। यह आदेशात्मक कथन भी है। यह ‘ऐसे ही और’, ‘इसी प्रकार के और’ के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। मूलतः यह शब्द ‘एव’ (एक) को -अम् प्रत्यय लगाकर रचा गया है। अतः इसका अर्थ एक एक कर गिनने की संकल्पना से निकला है, “एक मैं हूँ एक तुम हो” का तात्पर्य “मैं और तुम हैं” किया जा सकता है ड
‘एवं’ के कुछ तद्भव शब्द :—
- पालि भाषा : एवमेव (ऐसा ही)
- प्राकृत : एवमेव, एमेव, एमेअ, एमिअ (ऐसा ही, वैसा ही)
- अपभ्रंश : एंवहीँ, एव्वहिँ, एवहिँ
- पंजाबी : ऐवेँ, इवेँ, ऐँ, (इस प्रकार)
- अवधी : इमिग्रेशन
- हिन्दी : इं
- गुजराती : इम, एम (ऐसा)
- सिन्धी : मेवा, मेवु, मे
व
संस्कृत भाषा व का ही तत्सम रूप है। यह साम्यता बोधक शब्द इव का ही पृषोदर रूप है। एव तथा एवं इव शब्द व की वृद्धि से रचे गए हैं।
व, व्य, इवार्थः । इति मेदिनी । वे, १ ॥ (यथा, रघुः । ४ । ४२ । “ताम्बूलीनां दलैस्तत्र रचितापानभूमयः । नारिकेलासवं योधाः शात्रवं व यशः पपुः ॥”)
इव, व्य, सादृश्यम् । साम्यम् । इत्यमरः ॥ (यथा, रघौ । १ । १ । “वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्ब्बतीपरमेश्वरौ” ॥) (उत्प्रेक्षा । यथा, साहित्यदर्पणे १० परिच्छेदे । “मुखमेणीदृशो भाति पूर्णचन्द्र इवापरः” ।) ईषत् । वाक्यालङ्कारः । (यथा, शाकुन्तले १ अङ्के । “किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्” । एवार्थः । यथा, ऋग्वेदे १ । १८४ । ३ । “श्रिये पुषन्निषुकृतेव देवाः” “इवशब्द एवार्थे” इति भाष्यम् । अवधारणार्थः । यथा, शतपथब्राह्मणे प्लक्ष्णेव तु ईश्वरा” “इवशब्दोऽवधारणार्थः इति भाष्यम् ।)
‘व’ का प्रथम प्रयोग ऋग्वेद में मिलता है। यथा ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के सैंतालीसवें सूक्त की प्रत्येक ऋचा का अन्त “……नेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः” वाक्यांश से होता है। यथा :—
महि वो महतामवो वरुण मित्र दाशुषे ।
यमादित्या अभि द्रुहो रक्षथा नेमघं नशदनेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ॥— ऋग्वेद ८.४७.१॥
इसमें ‘व’ शब्द को सदा समुच्चय के एक अवयव के उपरान्त आने वाले दूसरे अवयव को जताने के लिए किया गया है।
इसके अतिरिक्त ‘व’ का और के अर्थ में प्रयोग होने वाले शब्द का मूल अरबी भाषा के وَ (व) में भी है, जिसे और तथा अल्पविराम दोनों ही अर्थों में प्रयोग करते हैं। इसका आरामी तथा हिब्रू भाषा में स्वरूप וְ־ (व) ही है; तथा अक्कादी भाषा में 𒅇 (उ)। इस शब्द का फ़ारसी भाषा के माध्यम से हिन्दुस्तानी में आगमन अनेक भाषाविदों ने माना है, किन्तु वैदिक साक्ष्य के आधार पर मैं इसका विरोध करता हूँ। किन्तु, हिन्दी में ‘व’ देशज तथा विदेशज दोनों ही मूलों से व्युत्पन्न अव्यय शब्द मानने में मुझे कोई हिचक नहीं।
© अरविन्द व्यास, सर्वाधिकार सुरक्षित।
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