आरम्भ तथा प्रारम्भ की मूल धातु ‘रभ्’ है।
आरम्भ¦ पु॰ आ + रभ् घञ् मुम्। १ उद्यमे २ त्वरायां स्वार्थं परार्थं ३ गृहादिसम्पादनव्यापारे ४ उपक्रमे प्रथमकृतौ ५ प्रस्तावने ६ बधे ७ दर्पे च। ८ व्यापारे ९ आरभ्यमाणे — वाचस्पत्यम्
तथा
प्रारम्भः, पुं, (प्र + आ + रभ् + भावे घञ् । मुम् च ।) प्रकर्षेण आरम्भः । यथा, स्मृतिः । “प्रारम्भे कर्म्मणां विप्रः पुण्डरीकं स्मरेद्धरिम् ॥” (प्रारभ्यते इति । प्र + आ + रभ् + कर्म्मणि घञ् । मुम्च । कर्म्म । यथा, मार्कण्डेयपुराणे । ५१ । १७ । “शुभाशुभञ्च कुशलैः कुमारोऽन्यो ब्रवीति वै । तत्रापि दुष्टे व्याक्षेपः प्रारम्भत्याग एव च ॥” प्रकृष्ट आरम्भो योगो यस्येति विग्रहे । योगी । यथा, रघुः । १० । ९ । “प्रबुद्धपुण्डरीकाक्षं बालातपनिभांशुकम् । दिवसं शारदमिव प्रारम्भसुखदर्शनम् ॥”) — कल्पद्रुम
धातुपाठ के अनुसार इस धातु की व्याख्या है :—
रभ् रभँ राभस्ये भ्वादिः, आत्मनेपदी, सकर्मकः, अनिट् (आनन्द करना, प्रसन्न होना) — धातुपाठ १.११२९ (कौमुदीधातुः-९७४)
इससे सम्बन्धित एक अन्य धातु रम्भ् है,
रम्भ् रभिँ शब्दे भ्वादिः, आत्मनेपदी, सकर्मकः, सेट् (ध्वनि करना) — धातुपाठ १.४४९ (कौमुदीधातुः-३८५ इत्यस्य पाठभेदः)
किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व उसके लिए पुकार लगाना; आओ मिलकर यह कार्य करें; आरम्भ, अथवा प्रारम्भ कहते हैं; यह आरम्भ जिस शब्द से हुआ है; वह उत्साह भरा शब्द रम्भण है।
प्रातः गौ के रम्भण की ध्वनि भी दिवस के आरम्भ का संकेत है। रभ तथा रम्भ धातुओं का आनन्द और ध्वनि से सम्बन्ध है, इसलिए इन्द्रलोक की एक सुप्रसिद्ध अप्सरा को रम्भा नाम मिला है।
रभ् धातु से रचा रभस् (रभ–असच्) वेग, हर्ष, उत्सुकता, पहले से ही किया विचार, उतावली, आतुरता, क्रोध, उत्पात, आदि अनेक अर्थ वाला शब्द बना है। यह सभी वे कारक हैं, जो किसी भी प्रक्रिया का आरम्भ कर सकते हैं। ऐसा कोई भी कार्य जो ऐसे कारकों से आरम्भ होता है, वह राभसिक कार्य है।
रभ् से रचा सरलतम शब्द है रभ (औ ङ राभस्ये); जो उत्सुकता, बिना सोचे समझे करने की वृत्ति (सहज होने वाले कर्म करने की वृत्ति), आदि बनते हैं। तथा रभ, (इ ङ शब्दे) आवाज करना। ऐसा करने वाले वानर का एक पर्याय रभ होता है।
रभ् का अधिक प्रभावी रूप है रम्भ्। रम्भ (रभि + कर्म्मणि घञ्) को बाँस, केले का वृक्ष (इनके सहज पनपने की वृत्ति से), एक वानर का नाम, एक अप्सरा का नाम, गायों की ध्वनि, आदि अर्थों में प्रयोग किया जाता है।
यह धातुएँ आरम्भ का शब्द के साथ सम्बन्ध (शब्द ब्रह्म) की परिकल्पना को दर्शाती हैं।
विशेष :—
इस धातु को कृदन्त क्त प्रत्यय लगा कर रब्ध शब्द की रचना होती है; जिसका अर्थ है आरम्भ किया हुआ; जिस प्रकार लभ् (पाना) धातु से लब्ध — पाया हुआ शब्द की रचना हुई है।
रब्ध को आ तथा प्र उपसर्ग लगा कर प्रारब्ध (प्र + आ + रभ—आरम्भे क्त प्रकृष्टमारब्धं स्वकार्य्यंजननाय कृतारम्भं येन! — जिसने अपना कर्म फल देना आरम्भ कर दिया हो) रचा गया है।
© अरविन्द व्यास, सर्वाधिकार सुरक्षित।
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