मातृभाषा और मानवाधिकार

मानव जीवन को सबसे प्रभावित करने वाले विषय है रोजगार, शिक्षा, न्याय। इन से जुड़े अधिकार अन्य अधिकारों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हैं। एक अधिकार जीवन के कई अंगो को प्रभावित कर सकता है।

मानवाधिकारों में सर्वाधिक चर्चा आलोचना के अधिकार की होती है। क्योकि विश्व राजनीति में सर्वाधिक प्रयोग इसी का होता है। ऐसा माहौल बना होता है कि इस अधिकार के बिना विज्ञान और आर्थिक विकास असम्भव है।

जबकि थोड़े ही विचार से स्पष्ट हो जाएगा कि अन्य मौलिक अधिकारों का जीवन पर प्रभाव इसकी तुलना मे कहीं अधिक है। एक शिशु को जन्म लेते ही सत्ता की आलोचना आरम्भ करनी हो ऐसा नहीं है। उससे पहले तो उसको इस संसार के प्रति अपनी समझ विकसित करनी होती है। वहाँ पर उसके लिए शिक्षा व स्वास्थ्य महत्वपूर्ण है। सामाजिक दृष्टिकोण से शिक्षा का एक उद्देश्य रोजगार प्राप्त करना होता है। इस कारण देश में रोजगार की दिशा, शिक्षा की दिशा निर्धारित करती है । जीवन के इन दो पक्षों, रोजगार और शिक्षा, में आलोचना के अधिकार से अधिक महत्वपूर्ण भाषा का अधिकार है। यदि एक आम व्यक्ति मातृभाषा में शिक्षा या रोजगार प्राप्त नहीं कर सकता, तो उस समाज में मूल अधिकारों का हनन हो रहा है ऐसा मान लेना चाहिए।

जीवन की दौड़ में व्यस्त होने पर अधिकांश व्यक्तियों को सरकार या सत्ता की आलोचना में कोई में अधिक रुचि नहीं होती। आलोचना के अधिकार का ना होना विकास में तभी बाधक होता है जब सत्ता विज्ञान जैसे क्षेत्रों में खुले विचारों पर दखल दें। जो प्रजातन्त्र से पूर्व के इतिहास में भी नहीं होता था। यूरोप में गैलैलियो के समय हुआ जो हुआ उसमे भी सत्ता से अधिक चर्च का हाथ था। यदि आलोचना के अधिकार पर नियन्त्रण की सीमा केवल सत्ता की आलोचना तक सीमित हो तो विज्ञान का विकास हो जाता है, जैसा हमने प्रजातन्त्र आने से पहले के यूरोप में देखा। भारत का आर्थिक और वैज्ञानिक विकास भी राजतन्त्र के समय ही हुआ था। वर्तमान चीन में हमने देखा है।

भाषा के अधिकार का समाज पर प्रभाव, आलोचना के अधिकार से कहीं अधिक है । बीस वर्ष पहले , सन् २००० के आस पास, चर्चा का विषय होता था कि भारत और चीन में से कौन सी अर्थव्यवस्था आगे जाएगी। अधिकांश विचारक प्रजातन्त्र को विकास का मुख्य घटक मानते हुए भारत का पक्ष लेते थे। आज बीस वर्षों बाद चीन इतना आगे निकल चुका है कि पचास वर्षों में भी भारत के लिए चीन की बराबरी सम्भव नहीं। चीन में आलोचना का अधिकार नहीं है पर भाषा का अधिकार है। आलोचना का अधिकार ना होने का कोई विपरीत प्रभाव चीन की अर्थव्यवस्था पर पड़ता नहीं दिखता।

अनेकों उदारहण ऐसे हैं जब प्रजातन्त्र होते हुए भी नागरिकों के पास मूल अधिकार नहीं होते। भारत में पहले चालीस वर्षों तक चली मार्क्सवादी आर्थिक नीतियों में उत्पादन सरकार के अधिकार में था। नागरिकों के पास उत्पादन का अधिकार भी नहीं था जबकि भारत में प्रजातन्त्र था। इसी तरह स्वतन्त्रता से अब तक भारत में प्रजातन्त्र तो है पर नागरिकों के पास भाषा का अधिकार नही है, न्याय शिक्षा व रोजगार मातृभाषा में नही मिलते।

ये देखने में आया है मौलिक अधिकारों की कमी से विकास में बाधा आती है, पर कौन से मौलिक अधिकार का कितना प्रभाव है ये भी देखना है। हमारे पास आलोचना का अधिकार है, अच्छी बात है, पर इसका अर्थ ये नहीं कि भाषा के अधिकार के बिना काम चल जायेगा।

भाषा का अधिकार अपने आप तो एक मौलिक अधिकार है ही पर अन्य कई अन्य अधिकार भी इस पर निर्भर हैं। इसलिए भाषा के अधिकार का विषय अत्यन्त गम्भीर है। इस अधिकार के बिना एक भी देश विकसित नहीं बना है।

© सन्दीप दीक्षित, सर्वाधिकार सुरक्षित।

इस आलेख को उद्धृत करते हुए इस लेख की कड़ी/लिंक का भी विवरण दें।

2 Likes

अद्भुत @संदीप_दीक्षित जी। बहुत ही उत्तम एवं प्रासंगिक विचार रखे हैं आपने :clap:t4: :clap:t4:

तथाकथित आलोचना के अधिकार के कोलाहल ने अन्य महत्वपूर्ण एवं मौलिक अधिकारों को चर्चा से ही बाहर कर दिया है। भाषा का अधिकार उन्हीं में से एक है।

3 Likes