हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओँ का उत्थान

अगर समस्या के मूल कारण का ठीक से ज्ञान है तभी समस्या हल होती है, नहीं तो प्रयास चलते रहते हैं परिणाम नहीं आते। इसलिए इस विषय को बड़ी गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।

यहाँ पर हिन्दी नहीं सभी भारतीय भाषाओँ और अंग्रेजी को लेकर बात करते हैं।


इससे पहले कि मूल विषय पर बात हो समस्या से जुड़े कुछ विषयों पर आते हैं। १९८० के आस पास तक मातृभाषाओं की स्थिति बुरी नहीं थी। फिर निजी विद्यालयों को सँख्या बढ़ने लगी, एक तो निजी विद्यालय अंग्रेजी माध्यम के होते थे, और लोगों ने निजी विद्यालयों को सरकारी विद्यालयों से बेहतर पाया। २०१७ आते आते निजी विद्यालयों की संख्या १९७८ की संख्या का दस गुना हो गई। निजी विद्यालयों की संख्या सरकारी विद्यालयों से कम है लेकिन निजी विद्यालयों में लगभग ५०% छात्र है। जब तक मजबूरी न हो तो सरकारी विद्यालय में आज कोई नहीं जाना चाहता। अगर किसी सरकारी विद्यालय के छात्र ने कोई बड़ी प्रतियोगिता पास की तो ये एक खबर होती है। इसका परिणाम ये हुआ की कई राज्य सरकारों ने सरकारी विद्यालयों में अंग्रजी माध्यम शुरू किया। जिससे सरकारी विद्यालयों में नामांकन में वृद्धि भी हुई। स्पष्ट है कि लोगो का रुझान अंग्रेजी माध्यम की और है।

क्या अंग्रेजी माध्यम होने से कोई नुकसान है? अनेको शोध और आँकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि मातृभाषा में शिक्षा ना होने से समझने की शक्ति घटती है । अधिकांश लोग अनायास ही अमरीका और इंग्लैण्ड को देखकर मान लेते है अंग्रेजी भाषा विकास की, विज्ञान की, व्यवसाय की भाषा है। यद्यपि लोग भूल जाते है कि इन देशों में अंग्रेजी भाषा मातृभाषा भी है। उन देशो को भी देखना जरूरी है जिनकी मातृभाषा अंग्रजी नहीं और वे अंग्रेजी का प्रयोग करते है।

ऐसे देशो में कुछ देश हैं कैमरून, युगाण्डा, नाइजीरिया जिनमे अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या ६०% से अधिक है, ये सम्भवतः अंग्रेजी को विज्ञान और व्यापार की भाषा मानते है लेकिन ये देश दरिद्र हैं। वहीँ पर कई और विकसित देश हैं जिनकी जो मातृभाषा का प्रयोग करते हैं अंग्रेजी का नहीं, इनमे जापान, दक्षिण कोरिया, चीन, जर्मनी, फ़्रांस जैसे देश है। ये सम्भवतः मानते हैं कि लोग वैज्ञानिक बनते है कोई भाषा वैज्ञानिक नहीं बनाती ।

उच्च शिक्षा भारत में सदैव ही अंग्रेजी में रही है पर भारत में शोध की कमी रही है।

पर इससे भी अधिक दुखद बात ये है कि अंग्रेजी के बाहुल्य के कारण लोगों में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। देश के लोगों को न्याय, शिक्षा, रोजगार मातृभाषा में ना मिल पाना अमानवीय है। शोध से पता चलता है कि मानवधिकारों की कमी देश के विकास में बाधक होती है। जनता के अधिकारों पर अत्यधिक नियन्त्रण या मूलअधिकारों का हनन विकास में बाधक होता ये हम मार्क्सवाद की विफलता से देख सकते हैं। भाषा का अधिकार जीवन से गहराई से जुड़ा है, माना जा सकता है कि इस अधिकार की कमी विकास में और भी बाधक है। इस अधिकार का प्रभाव, आलोचना के अधिकार से कहीं अधिक यही ये मैंने अन्य लेख में स्पष्ट किया है। मातृभाषा की समस्या को केवल वार्तालाप और प्रचार प्रसार से देखा जाता है, ये कितने व्यापक स्तर पर लोगों के मूल अधिकार के हनन की समस्या है, इस दृष्टिकोण से इसको नहीं देखा जाता।

इस बात में कम ही सन्देह है मातृभाषा में शिक्षा का ना होना विकास में बाधक है। इस विषय पर अधिक गहराई में जाने की आवश्यकता इसलिए नहीं कि सरकार भी इसी मत को रखती हुई प्रतीत होती है।

नीतियों में प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा में करने की बात है, अब प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा में करने के प्रयास क्यों विफल होंगे? जबाब अत्यन्त सरल है। हमने ऊपर देखा कि १९७८ के आस पास तक प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में हो रही थी। प्राथमिक ही नहीं कक्षा १२ तक की शिक्षा मातृभाषा में अच्छे से हो रही थी। १९९५ तक भी स्थिति बहुत ख़राब नहीं थी। उस शिक्षा से आए लोग आज भी कार्यरत है और निजी उद्योग में भी अच्छा कर रहे हैं। फिर क्या कारण थे कि लोग अंग्रेजी माध्यम की और चले गए। क्या लोगों को अपनी भाषा से प्रेम नहीं, या कोई और कारण है ? अगर ये समस्या केवल प्रसार की है, तो इतनी अच्छी स्थिति में होकर मातृभाषा शिक्षा क्यों पटरी से उतर गयी ? क्या नई शिक्षा नीति इन कारणों की बात करती है ? क्या ये कारण ढूँढ लिए गए और समाप्त कर दिए गए? जब हम प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा में करेंगे तो लोग ख़ुशी ख़ुशी मान लेंगें और सरकारी विद्यालयों में बच्चों की बाढ़ लग जाएगी।

इस समस्या का मूल कारण जानना भी इतना कठिन नहीं है। सौ दो सौ लोगों से पूछ लो कि आप अपने बच्चे को अंग्रेजी माध्यम में क्यों पढ़ा रहे हैं। एक ही मुख्य कारण है, रोजगार। सारा निजी उद्योग अंग्रेजी में काम करता है, अंग्रेजी में इंटरव्यू होते है और अंग्रेजी अच्छी होने पर आगे बढ़ने में मदद होती है। ये भी मानवाधिकारों का हनन और भेदभाव है जो भारत में धड़ल्ले से जारी है।

इसका दूसरा कारण भी रोजगार से ही जुड़ा है, जो है उच्च शिक्षा में प्रवेश। उच्च शिक्षा से रोजगार मिलते हैं। उच्च शिक्षा में प्रवेश कैसे में मिले, ये बात तय करती है कि कौन से विद्यालय लोकप्रिय होंगे या ये विद्यालय किस भाषा में पढ़ाएंगे, कोचिंग किस भाषा में होगी। उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए परीक्षा के प्रश्नपत्र अंग्रेजी में बनते है, फिर अंग्रेजी से अनुवाद करके मातृभाषा के प्रश्नपत्र बनते है। इस अनुवाद की भाषा उससे बहुत भिन्न होती तो छात्र पढ़ता आया है। इन प्रश्नो को अंग्रेजी में तो ठीक से जाँचा परखा जाता है, पर मातृभाषा के अनुवाद कोई हल करके भी नहीं देखता। यहाँ भी मातृभाषा होने का नुकसान और फिर एक भेदभाव। उच्च शिक्षा अंग्रेजी में हो तो भी चल जाये पर प्रवेश में तो भेदभाव न हो। इससे मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा से रही सही उम्मीद भी टूट जाती है। फिर माता पिता के पास क्या विकल्प है ? अंग्रेजी माध्यम। क्या हम किसी को अंग्रेजी माध्यम की और जाने पर कह सकते है कि वो केवल दिखावे या फैशन के कारण जा रहा है ? क्या मातृभाषा माध्यम के अच्छे विद्यालय भी पढ़कर भी कोई इन कारणों से लड़ने में सक्षम है ? यानि अच्छे मातृभाषा विद्यालय के ऊपर भी लोग सामान्य अंग्रेजी माध्यम चुनने को विवश हैं।


मूल कारण पता है, तो अनेको समाधन हो सकतें हैं. सही समाधान वही है जो मूल कारण के प्रभाव को कम करता प्रतीत होता हो। प्रचार प्रसार करना, लोगों से मातृभाषा के प्रयोग को कहना, इन सब के सीमित प्रभाव होतें हैं। जब तक मूल कारण बना हुआ है, तब इनके प्रभाव हमें नहीं दिखेंगे।
भाषा को धन और रोजगार से जोड़ना होगा। एक बार ऐसा हो गया तो शेष स्वतः होता चला जायेगा।

एक सरल समाधान है कि JEE जैसे उच्च शिक्षा में प्रवेश की परीक्षाओं के प्रश्न पत्र उसकी भाषा में बने, अनुवाद न किया जाए। या तो प्रतिशतता (percentile) के तरीके से अगल अलग भाषाओं के अङ्कों की तुलना हो या गैर अंग्रेजी भाषाओँ में परीक्षा दे रहे विद्याथिर्यों के लिए कम से कम ३०% सीटें आरक्षित कर दी जाएँ, ये आरक्षण गैर अंग्रेजी भाषाओँ से कितने आवेदन आ रहे हैं उसके आधार पर बदला जा सकता है। इससे गुणवत्ता पर प्रभाव नहीं होगा क्योकि उसी स्तर के विद्यार्थी अब दूसरी भाषा में परीक्षा दे रहें होंगे। धीरे धीरे प्रवेश परीक्षा से अंग्रेजी पूरी तरह हटाई जा सकती है।

यदि आरक्षित नहीं करना है तो जिन बच्चों ने प्रवेश परीक्षा भारतीय भाषा में दी है उनको विशेष छात्रवृत्ति मिल जाए। ये छात्रवृत्ति इतनी हो कि आकर्षण का कारण बने। इस समय केवल २ प्रतिशत छात्र भारतीय भाषाओं से आते हैं। आरम्भ में यह व्यय कुछ विशेष नहीं होगा।

दूसरा समाधान यह हो सकता है कि प्रत्येक भारतीय भाषा में उच्च शिक्षा के विद्यालय बनाये जाएँ। इनमें चयन केवल उसी भाषा की प्रवेश परीक्षा से हो। यहाँ पर यह विषय होगा कि अच्छे विद्यार्थी इनमें जायेंगे क्यों? इन विद्यालयों को अंग्रेजी वाले विद्यालयों से उत्कृष्ट बनाना होगा, अधिक व्यय करना होगा, अधिक सुविधाएँ, अच्छे अध्यापक और शुल्क भी कम रखना होगा।

एक और काम होना चाहिए, कामकाज में अंग्रेजी भाषा का अनावश्यक प्रयोग हटाने के लिए नियम लाने चाहिए। प्रत्येक बड़ी कम्पनी को बताना होगा कि अंग्रेजी के प्रयोग के क्या कारण है। उदाहरण के लिए सड़क बना रही कम्पनीयों के द्वारा आज एक छोटे से ठेकेदार से होने वाला अनुबन्ध (contract ) भी अंग्रेजी में लिखा होता है। इसकी क्या आवश्यकता है, ये उस कम्पनी को स्पष्ट करना चाहिए। किसी भी कम्पनी को साक्षात्कार प्रदेश की भाषा में ही करना चाहिए।

[सर्वाधिकार सुरक्षित]

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बहुत अच्छा विश्लेषण किया है @संदीप_दीक्षित जी आपने। व्यवसायों एवं रोजगार से भारतीय भाषाओं की परिहार्यता ही हमारी भाषाओं के पतन का मूल कारण है।

न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं की दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय में केवल औपनिवेशिक भाषा अँग्रेजी में ही वाद-विवाद किया जा सकता है।

किसी भी स्वाभिमानी समाज के लिए यह बहुत ही लज्जाजनक स्थिति है।

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